भूमिका
वामपंथ पर एक किताब क्यों लिखूं ? जो घट गया. बीत गया, खुद खर्च हो गया उस पर और समय और सोच क्यों खरचना ? वामपंथ पर एक पुस्तक में किस की रुचि हो सकती है? इसे पढ़ेगा कौन? वामपंथ आज है कहाँ?
वामपंथ रूस में था. पूर्वी यूरोप में था. कोरिया और क्यूंबा में बचा है, चीन में रंग रूप बदल कर कैपिटलिज्म के साथ फल-फूल रहा है….पर अपने किस काम का?
भारत में यह बंगाल से उजड़ गया, त्रिपुरा से नष्ट हो गया, कल परसों केरल में भी दम तोड़ देगा, फिर इसकी बात भी क्या करनी है? भारत की जनता ने इसे नकार दिया है, दुत्कार दिया है। दारू पीकर किसी नाले में पड़ा, किसी बुद्धिजीवी की बुक शेल्फ और उसकी खिचड़ी दाढ़ी में पड़ा यह किसी का क्या बिगाड़ रहा है जो हम आज इसकी बातें भी कर रहे हैं?
ऐसे में वामपंथ प्रासंगिक भी क्यों है?
क्या वामपंथ सचमुच पराजित हो चुका है? या इसने सिर्फ रूप बदल लिया है। और एक राजनीतिक आंदोलन के बजाय यह एक सामाजिक शक्ति बनकर आज भी सत्ता भोग रहा है?
किशोरावस्था में अक्सर लोग वामपंथी राजनीति और विचार प्रक्रिया को किसी ना किसी कोर किनारे से छूते ही हैं। हर युवा सवा या चौथाई वामपंथी होता ही है। फिर ज्यादातर स्वस्थ मानसिकता वाले लोग इससे बाहर निकल लेते हैं. बड़े हो लेते हैं। पर फिर भी बहुत से लोग किसी ना किसी रूप में वामपंथी विचार प्रक्रिया को थोड़ा या ज्यादा सब्सक्राइब करते हैं। और इस जरा-सी सामाजिक वैचारिक स्वीकृति के बल पर वामपंथ समाज को संचालित करता रहता है और अपना विषैला एजेंडा चलाता रहता है।
अपनी युवावस्था में कॉलेज के दिनों में मैं भी वामपंथी ही था। औसत से ज्यादा, बल्कि घनघोर फिर धीरे-धीरे बौद्धिक विकास की प्रक्रिया में इससे बाहर निकल आया। पर अपनी उस वामी मनः स्थिति की पड़ताल मैंने बन्द नहीं की।
पिछले कुछ वर्षों में सोशल मीडिया पर लेखन की प्रक्रिया ने खुद मेरी अपनी सोच और अन्तः दृष्टि को भी विकसित किया और यह पड़ताल और गहन होती गयी, दृष्टि और स्पष्ट होती गयी। पर अगर इस पुस्तक का श्रेय मैं पूरी तरह स्वयं लेने का प्रयास करूँ तो यह एक बौद्धिक बेईमानी होगी।
मेरी दृष्टि को और स्पष्टता देने का श्रेय जाता है आदरणीय अग्रज श्री आनंद राजाध्यक्ष जी को। मुझे हमेशा उनके सतत बौद्धिक और वैचारिक मार्गदर्शन का सौभाग्य मिला और उनके साथ घंटों हुई बातचीत में इस पुस्तक का बीज पड़ा। अगर यह पुस्तक विचारों की एक फसल है तो इसकी बुआई और सिंचाई का श्रेय आनंदजी को ही जाता है। मैंने तो सिर्फ मेड़ों और बाड़ों के रखरखाव का काम किया है और आज यह फसल काटने बैठा हूँ।
अपनी विचार प्रक्रिया के क्रमिक विकास में भी मुझे कॉलेज के दिनों के अनेक मित्रों का साथ मिला। हॉस्टल के दिनों की लंबी शामें जो चाय की चुस्कियों और शतरंज की बाजियों के बीच गहरी रातों में बदल गई और उसमें छिड़ी लंबी राजनीतिक बहसों ने मुझे बदलने, सँभालने, सुलझाने का काम किया। अगर मैं मेडिकल कॉलेज के अनेक मित्रों को, जिन्होंने उन सालों में मुझे झेला, याद ना करूँ तो यह बहुत ही अन्याय होगा। मनीष खन्ना, धीरज सैनी, सुनील रैना, दिनेश त्रिपाठी, अजय भारद्वाज…तुम सबकी कितनी ही शामें इस किताब की भेंट चढ़ी हैं. गिन ना पाओगे….. जमशेदपुर में अभ्युदय और पूर्व सैनिक सेवा परिषद् के मेरे अनेक अनन्य मित्र मेरी इस विचार यात्रा के साक्षी रहे और उनकी वैचारिक सामाजिक प्रतिबद्धता सदैव मेरा प्रेरणा श्रोत रही। वे खुद जमीन पर जुटे रहे और मुझे हवाई लप्फाजी करने के लिए मुक्त रखा, फिर भी कभी मुझे जड़ों से कटने नहीं दिया।
लगभग यह पूरी किताब अलग-अलग समय पर फेसबुक पोस्ट्स के रूप में उतरकर आई है। मेरे जिन हजारों मित्रों ने इसे वहाँ पढ़ा, सराहा, फैलाया और मुझे इसे पुस्तक रूप में लिखने का प्रोत्साहन दिया…यह किताब मूलतः उनकी संपत्ति है।
और मेरी खैर नहीं अगर हर विवाहित व्यक्ति की तरह अपनी हर उपलब्धि का श्रेय अपनी पत्नी से ना शेयर करूँ। पल्लवी का श्रेय सिर्फ यह नहीं है कि उसके हिस्से का समय काट कर मैंने यह किताब लिखी और उसने लिखने दिया। वह मेरी विचार यात्रा की सिर्फ सहगामिनी ही नहीं है, एक अटूट संबल है। यह बताना काफी होगा कि 25 वर्ष पहले जब उससे मिला था तो तब तक मैं वामपंथी हुआ करता था। मुझमें राष्ट्रवाद का आरोपण और हमारा रोमांस एक साथ शुरू हुआ और यह एक संयोग मात्र नहीं है।
पर इसे पुस्तक रूप में लिखे जाने से बहुत-बहुत पहले इसका अधिकांश हिस्सा एक बहुत ही होनहार और कुशाग्र बुद्धि किशोर के साथ लंबी बातचीत के रूप में विकसित हुआ। वह है मेरा पुत्र सिद्धार्थ । पूरी किताब मूलतः सिद्धार्थ और उसकी पीढ़ी के प्रति मेरी चिंता और उनके संस्कारों पर हुए वैचारिक आक्रमण के प्रतिकार की छटपटाहट है। मेरा प्रयास होगा कि यह किताब इस पीढ़ी के हर युवा के हाथ में जाये, उनकी विचार प्रक्रिया का भाग बने और उन्हें वामपंथ के जहर से बचाने में सहायक सिद्ध हो। उस अगली पीढ़ी को मेरी यह तुच्छ भेंट समर्पित है।
-डॉ० राजीव मिश्रा