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मेरा आजीवन कारावास
हमारे अंदमानवाले वृत्तांत तथा वहाँ बंदीवास को निभाते समय भुगतनी पड़ी यातनाओं की कहानी सुनने के लिए न केवल महाराष्ट्र में अपितु समूचे हिंदुस्थान में हमारे हजारों देशबंधुओं ने सहानुभूतिपूर्ण उत्सुकता आज तक समय-समय पर प्रकट की है। उसपर भी, जिन सुख-दुःखों को हमने भुगत लिया, उनका निवेदन सुहृदों से करते समय समान वेदनाओं से जनित आँसुओं के कारण स्निग्ध होनेवाले मधुर आनंद का अनुभव करने के लिए हमारा हृदय हमारी मुक्तता के क्षणों से स्वाभाविक ही व्याकुल होता आया है।
फिर भी आज तक अंदमान की कहानी होंठों तक पहुँचने पर भी किसी तरह होंठों से बाहर नहीं निकल रही थी। अंधकार में बढ़नेवाली किसी कँटीली पुष्पलता की भाँति उन अँधियारे दिनों की याद उजियारे को देखते ही सूखने लगती, भौचक्का हो जाती।
कभी लगता था, क्या बताने के उद्देश्य से वह सब भुगत लिया था? तो फिर उसे निद्रा अभिनय ही कहना चाहिए। कभी लगता था, हमें जो यातनाएँ भुगतनी पड़ीं उन यातनाओं को भुगतते-भुगतते जो लोग उन यातनाओं के शिकार हो गए, उनको तो घर लौटकर प्रियजनों को अपने वे सुख-दुःख बताने का भी संतोष नहीं प्राप्त हुआ। वे साथी आज हमारे बीच नहीं हैं, जिनके साथ तप की जलन को सह लिया था, उनको छोड़कर समारोह की दावत के पकवान अकेले ही कैसे खाएँ ? क्या यह उनके साथ प्रताड़ना नहीं होगी ?
और हम जैसे कतिपय मनुष्यों पर आज तक ऐसे विकट संकटों का सामना करनेवाले आह्वान आ गिरे हैं और अभी भी इसी प्रकार के अथवा इससे भी भयानक आह्वान आ गिरनेवाले हैं। इस जीवन कलह के नगाड़े के कोलाहल के बीच हम अपनी इतनी सी हलगी क्यों बजाते रहें?
दुःख के गले में आक्रोश का ढोल तो कुदरत ने ही लटका दिया है, ताकि उसे हुए बजाकर वह अपना यथासंभव मनोरंजन कर सके। बाज ने निशाना लगाते ही विवश हो उसकी चोंच के अंदर ही फँसा हुआ पंछी-सहायता की लेशमात्र आशा न होते भी—जो स्वाभाविक चौख निकालता है, उस चीख से लेकर, नेपोलियन का शव सेंट हेलिना से पेरिस जिस दिन लाया गया, उस दिन एक पूरा का पूरा राष्ट्र अपने ध्वजों को – झुकाए, अपने हजारों वाद्यों से हजारों शोक-स्वर तथा विरह गीतों को गाते हुए दुःख और आक्रोश का जो प्रकटीकरण कर रहा था उस आक्रोश तक, उस राष्ट्रीय स्फूर्तिगान तक जितना भी प्राणिसृष्टि का आक्रोश है, उतना सब अपने-अपने दुःख को सर्वज्ञात करने में मग्न होता है। आक्रोश दुःख का स्वभाव ही है, सो इस अनंत अंतराल में जो अनंत चीखें अपने-अपने दुःख का बोझ हलका करती हुई विचरण कर रही हैं, उनके मध्य मेरा दुःख भी अभिव्यक्ति की साँस क्यों न छोड़े? इस अनंत अंतराल में मेरे भी आक्रोश के लिए स्थान होगा! ऐसा सोचकर प्रवृत्ति कभी-कभी दुःख को एकबारगी निगलने के लिए तैयार हो जाती थी, परंतु तभी परिस्थिति उसके पाँव खींचकर उसे पीछे ढकेल देती थी।
हमारी सद्यःकालीन परिस्थिति में, हमारे अंदमानवाले अनुभव में जो कुछ बतलाने लायक है, वही विशेष रूप में बताया नहीं जा सकता। परिस्थिति की परिधि में जो बताया जा सकता है, वह बिलकुल ऊपरी सतह का खोखला तथा अपेक्षाकृत क्षुद्र लगता हुआ, कहने में कोई रुचि नहीं और जो कहने लायक लगता है, उसे परिस्थिति कहने नहीं देती। ऐसी अवस्था में कुछ भी बताते हुए कथ्य का चित्र रंगहीन तथा सत्त्वहीन कर देने की अपेक्षा अभी कुछ भी न बताएँ। जब वह दिन आ जाएगा कि सारी गूढ़ आकांक्षाएँ अभिव्यक्त हो सकें, सारी मूक भावनाएँ खुलेआम बातें कर सकें, उस दिन जो कुछ कहना है, यथा प्रमाण कह देंगे। यदि ऐसा दिन इस जिंदगी के दौरान निकलकर नहीं आया, तो नहीं कहेंगे। यदि उस वृत्तांत को जगत् ने नहीं सुना तो उस वजह से उसका महत्त्व तो कम नहीं होगा अथवा उसकी तीव्रता कम नहीं होगी, अथवा इस विश्व की विराट् दिनचर्या में वह सब अनसुना रहने के कारण कोई बड़ी रुकावट आनेवाली है, ऐसा भी नहीं। ऐसी हमारी सोच थी।
चित्त की ऐसी दोलायमान अवस्था में आज तक अंदमान के हमारे संस्मरण हमारे प्रिय बंधुओं को सुनाने का काम वैसा ही रह गया। हमारे बाद अंदमान आकर हमारे पहले जो मुक्त हुए थे, ऐसे कतिपय राजनीतिक बंदियों ने अपने-अपने अनुभवों को प्रसिद्ध किया ऐसा हमने अन्यत्र भी वर्ष अथवा छह महीनों के लिए जो कारागृह में बंद ऐसे लोगों ने भी उनके अनुभवों तथा उनकी यातनाओं की कहानी को समय-समय पर प्रसिद्ध किया और हमने उसे पढ़ लिया। परंतु ऐसे आत्म स्मृति कथन में आत्म- इला को जो गंध अनिवार्य रूप में आ जाती है, वह हमारे मन को पुनः पुनः सकुचाया करती थी और प्रियजनों के पास अपने सुख-दुःखों को खुले मन से कह डालने की स्वाभाविक प्रवृत्तिगत तथा जिस संकटों के पराभव की कहानी बतलाने का आनंद अनुभव करने क…