अपनी बात
पुस्तक का नाम “इनसाइड द हिन्दू मॉल” क्यों है?
यही वो पहला और कॉमन प्रश्न था जो मुझसे हर उस व्यक्ति ने पूछा जिससे मैंने इस पुस्तक के विषय वस्तु पर चर्चा की मैं विराट हिन्दू धर्म की तुलना किसी छोटे से मॉल से कैसे कर सकता हूँ? मैं हिन्दू धर्म को ग्लोरिफाई करना चाहता हूँ तो किसी शॉपिंग मॉल से इतनी हल्की तुलना क्यों? चर्चा के क्रम में ऐसे कितने ही विरोध और आलोचना के शब्द सुनने पड़े।
सारी आलोचना, सुझाव, कटाक्ष और व्यंग्य सुनने के बाद मुझे इसका यही उत्तर दिखाई देता है:-
बचपन में सबने छ: नेत्रहीनों की कहानी पढ़ी है जो हाथी देखने पहुँचे थे। उन नेत्रहीनों को हाथी दिखाई तो क्या देता, वो उसे छूकर ही महसूस कर सकते थे। जिसने हाथी के पैर छुए थे. उसने कहा हाथी एक खंभे की तरह होता है। जिसने उसकी पूँछ छुई थी उसने कहा- हाथी तो रस्सी की तरह होता है। जिसने हाथी का सूंढ़ पकड़ा था. उसने कहा- हाथी तो पेड़ के तने की तरह है। जिसने पेट छुआ था, उसने कहा- हाथी तो एक बहुत बड़ी दीवार की तरह है और जिसने हाथी के दांत पकड़े थे, उसने कहा- हाथी एक कठोर नली की तरह है।
उन नेत्रहीनों में से हरेक यही मान रहा था कि हाथी वही और उतना ही है जितना उसे महसूस हुआ। पर अपनी-अपनी जगह सही सभी थे उन लोगो ने जो कुछ भी बताया वो सभी बाते हाथी के लिए सही बैठती थी।
मैं भी उन्हीं नेत्रहीनों की तरह जब एक “हिन्दू मॉल” में गया तो वहां अनगिनत स्टॉल मुझे मिले। जिनमें से केवल कुछ पर ही मैं जा सका। इन दुकानों में किसी का नाम ‘समादर’ था, किसी का ‘जीवन-मूल्य’, किसी का ‘अरण्य संस्कृति, किसी का ‘प्रकृति प्रेम’, किसी का “महिला अधिकार व सशक्तिकरण”, किसी का “विश्व बंधुत्व”. किसी का “एकात्मता” किसी का “समरसता”, किसी का “सद्भाव”, किसी का “जीव जगत का कल्याण” किसी का “वैज्ञानिकता” किसी का प्राचीनता तो किसी का आधुनिकता’ और
उन अलग-अलग स्टॉलों पर मैंने महान हिन्दू धर्म के जिन रूपों को महसूस किया, उसी को इस पुस्तक में लिखा है।
इसका अर्थ ये है कि हिन्दू धर्म के विशाल मॉल में मैंने जितना पाया, हिन्दू धर्म केवल उतना ही नहीं है बल्कि अगर कहूँ कि इस पुस्तक के माध्यम से मैं आप सबको हिन्दू धर्म समझाऊंगा तो ये मेरी नादानी होगी। जिस हिन्दू धर्म की व्याख्या हमारे ऋषि-मुनियों ने, अवतारों ने और आदि शंकराचार्य, माधवाचार्य विद्यारण्य, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, ऋषि राजनारायण बसु. महर्षि अरबिंदो घोष तथा महात्मा गाँधी जैसे आप्त पुरुषों ने की हो और जिस हिन्दू धर्म को समझाने के लिए चार वेद, कई-कई ब्राह्मण ग्रंथ, अठारह पुराण व उपपुराण, सैकड़ों उपनिषद, दो महाकाव्य और सैकड़ों स्मृति ग्रंथ उपलब्ध हो, उस हिन्दू धर्म को बताने और समझाने की क्षमता तो मैं अनेक जन्म लेने के बावजूद अपने में विकसित कर नहीं सकता।
इस पुस्तक में मैंने हिन्दू धर्म की वही अवधारणायें लिखी हैं जिसे हम आये दिन जीते हैं, जो हर दिन हमारे आचार-विचार और व्यवहार से परिलक्षित होता है पर हम समझ नहीं पाते कि हममें ये गुण ये विशेषता ये सहजता ये एकात्मता. ये नारी के प्रति सम्मान का भाव, ये प्रकृति प्रेम और ये विश्व-बंधुत्व भाव इसलिए है क्योंकि हम हिन्दू हैं। इस किताब में वो तर्क हैं जिसके साथ आप कहीं जा सकें और संवाद करते हुए कह सकें कि हाँ ! इसलिए मैं हिन्दू हूँ और इस जगत में हमारे होने का ये प्रयोजन है।
अपनी विराट पृथ्वी को समझने के लिए हम बहुत छोटे से ग्लोब का सहारा लेते हैं पर उससे ये तय नहीं हो जाता कि हमारी धरती ग्लोब जितनी ही है, उसी तरह ये ‘हिन्दू मॉल’ ग्लोब की तरह ही एक tool है जिसके सहारे आकाशगंग और अनंत ब्रह्माण्ड की तरह विराट हिन्दू धर्म के बहुत छोटे से अंश को समझना है, हिन्दू धर्म को किसी मॉल की तरह छोटा करके दिखाना नहीं।
ये पुस्तक किसी विद्वान की कृति तो नहीं ही कही जानी चाहिए। इसमें मैंने केवल वही और उतना ही लिखा है जितना मेरी दादी (जो अब स्वर्ग में हैं). नानी, नाना जी, मेरी माँ और मेरे बुजुर्गों ने मुझे सिखाया। इसमें मैंने हिन्दू धर्म के उस स्वरूप को लिखा है जिसे मैंने अपने आसपास (पढे-लिखों की भाषा में अनपढ़ कही जाने वाली) महिलाओं को, किसानों को, वनवासियों को तथा मजदूरों को जीते हुए देखा है। ये वो लोग हैं जो प्रकृति के साथ एकात्म हैं; जिनके अंदर जड़-चेतन सबके लिए वात्सल्य, करुणा और असीमित प्रेम है और जो संतोष के साथ जीना जानते हैं। ये लोग सत्यनारायण भगवान की आरती के बाद हाथ उठाकर सभी के स्वस्थ्य और निरोगी होने की कामना करते हैं और ईश्वर से विश्व के कल्याण और प्राणियों में सद्भावना की मांग करते हैं।
इस पुस्तक में मैंने अपने उन अनुभवों को भी लिखा है जो मुझे अलग-अलग मत-मजहब, पंथों के विद्वानों और मित्रों के साथ परस्पर संवाद के दौरान हुआ है। इस किताब में मेरे लिए ऋषि-तुल्य महापुरुषों का भी पाथेय है जिनके प्रबोधनों से मुझे हिन्दू धर्म को समझने का सौभाग्य और सु-अवसर मिला। बड़े भाई सुधीर जी का स्मरण करना नहीं भूल सकता जिन्होंने इस ज्ञान-पथ पर चलना शुरू करने के बाद सबसे पहले मेरा हाथ थामा था। इस पुस्तक को लिखने में लगा समय जिसके हिस्से का है (यानि मेरी धर्म पत्नी) उसके समय-दान और सहयोग के बिना इसे लिख पाना संभव नहीं था।
राजीव मिश्रा और पाणिनि भाई के निरंतर उत्साह से ये किताब रूप में आई। सिम्मी ने विषय-वस्तु और शीर्षक के चयन में सहयोग किया। पुस्तक कवर डिजाइन करने में मुकेश भाई की मेहनत है। इसके अलावा उन सैकड़ों मित्रों और स्नेहियों का आभार व्यक्त करना नहीं भूल सकता जो मुझे आभासी दुनिया से अलग तो नहीं जानते पर लगातार उत्साहित करते रहे कि ये पुस्तक तो आनी ही चाहिए।
यानि इस पुस्तक में जो भी अच्छा है उसमें से कुछ भी मेरा नहीं है, वो सब उनका है जिनके नाम मैंने ऊपर लिए हैं और इसमें जो गलती या कमी है वो केवल और केवल मेरी है।
ये पुस्तक आप सब स्वीकार करें और इसे उन किशोरों, तरुणों और विशेषकर हमारी बच्चियों को पढ़ायें जिन्हें हिन्दू धर्म को सहज और सरल रूप में समझना भी है और फिर आगे दूसरों को समझाना भी है।
-अभिजीत
पौष शुक्ल द्वितीया
विक्रम संवत 2077, युगाब्द – 5122