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Specification
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Description
हिन्दुत्व के पंच प्राण
हिन्दूराष्ट्रवाद के विभिन्न अंगों एवं पहलुओंों का विस्तृत विवेचन करने वाले बृहदाकार ग्रन्थों की रचना वीरजी की प्रभावी लेखनी ने कर रखी है। इन ग्रन्थों के सर्जन के अतिरिक्त निबन्धों के रूप में प्रकाशित उनका साहित्य सम्भार भी विशाल है। समय-समय पर प्रचलित समस्याओं पर मर्मग्राही लेखों का लेखन वीरजी ने किया है और जागरूक तथा निर्भीक प्रकाशकों ने अपनी पत्र-पत्रिकाओं में उन्हें प्रकाशित भी किया है, जिससे वैचारिक ग्रान्दोलन भी उत्पन्न हुए हैं । उसी लेखन में ये निबन्ध लिखे गये थे, जिन्होंने हिन्दूराष्ट्र के विभिन्न अंगों एवं पहलुओं पर प्रखर प्रकाश डाला है और एक ऐसा आन्दोलन उत्पन्न किया है कि जिसके परिणामस्वरूप जहाँ एक ओर हिन्दूराष्ट्र का स्वरूप बहुतांश में स्पष्ट हो जाने के कारण हिन्दू- राष्ट्रवाद को एक यथार्थवाद का रूप पाप्त हुआ और प्राप्त हुए अनुयायी भी अपने ध्येयवाद के प्रति जागरूक एवं स्पष्ट धारणा रखने लगे, वहीं दूसरी ओर विरोधियों ने तथा शत्रुओं ने भी अपने- अपने मोर्चे बांध लिये और इस प्रकार राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम में हिन्दूराष्ट्रवाद एक प्रखर प्रत्याशी की भांति अपना स्थान पा सका ।
वीरजी के अनगिनत निबन्धों के विभिन्न संकलन वर्तमान शताब्दि के पूर्वार्ध में मराठी भाषा में प्रकाशित हो चुके हैं, यह पुस्तक भी उन्हीं संकलनों में से एक है। हिन्दी-जगत् वीरजी के लेखन से पूर्व से परिचित है, उनके साहित्य का हिन्दी में अब पुनर्प्रकाशन हो रहा है, यह स्पष्ट प्रमाण है कि राष्ट्र की जनता उसके द्वारा हेतुतः दुर्लक्षित द्रष्टा का मूल्य विलम्ब से क्यों न हो—उनके निर्वाण के पश्चात् क्यों न हो, पर समझ गई है। इस प्रकार यह तो केवल पुनरारम्भ मात्र ही माना जा सकता है जो सुचिह्न भर निश्चिन्त है।
प्रस्तुत संकलन — “हिन्दुत्व के पंच प्राण” अपने शीर्षक को पूर्णतः – सार्थक करता है जिस प्रकार मानव के जीवित रहने हेतु पंच प्राणों की आवश्यकता को विवाद्य नहीं माना जा सकता, उसी प्रकार राष्ट्र- जीवन के हेतु बोरजी द्वारा इन लेखों में प्रतिपादित तत्त्व भी विगत तीस-तीन वर्षों के समय की अग्निपरीक्षा में प्रतप्त होकर, रसरूप होकर शोषित हो जाने के कारण किसी भी प्रकार विवाद्य नहीं माने जा सकते। प्रस्तुत पुस्तक में संग्रहित वीरजी के नौ छोटे- बड़े लेख हिन्दुराष्ट्र का एवं उक्त हिन्दूराष्ट्र को प्रस्थापित करने की दिशा का साय परन्तु संक्षिप्त दर्शन है । “हिन्दुत्व के पंच प्राण” रूप में वर्णित इन एकादश लेखों में (अ) प्रथम लेख हिन्दुत्व की प्रकाट्य व्याख्या को संक्षेप में प्रस्तुत करता है। यह लेख हिन्दूराष्ट्रद्रष्टा बोरजी द्वारा लिखित हिन्दुत्व नामक राष्ट्रीय दर्शन ग्रन्थ का एक लघुरूप है— सारांश है (ग्रा) तृतीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम एवं दशम लेखों में प्रबल हिन्दूराष्ट्र के निर्माण हेतु हिन्दूसंगठनरूपी स्वराज्यनाधक साधन की अत्यावश्यकता का, संख्याबल की महत्ता का, न्याय तथा राष्ट्रहित की दृष्टि से अछूतोद्धार का, जन्मजात जातिभेद को समाप्ति का विश्लेषण कर साहसिक प्रतिपादन किया है। (इ) द्वितीय लेख में हिन्दी राष्ट्रभाषा के शुद्धत्व के विचार को प्रस्तुत कर हिन्दुस्थानी भाषावाद के तर्कों को निराधार तथा राष्ट्रघातक सिद्ध किया है। (ई) पष्ठ लेख में हिन्दुओंों की, धर्म- भ्रष्टता सम्बन्धी भ्रान्त धारणा तथा ईसाई एवं इस्लामियों द्वारा उसने उठाये जाने वाले अनुचित लाभ को संक्षेप में बताकर बुद्धि के महत्त्व का प्रतिपादन किया है। (उ) तथा पंचम, नवम् एवं एकादश लेखों में एहिसा के प्रत्यन्त विवादपूर्ण विषय के सम्बन्ध में प्रत्यन्तिक- पतिमा एवं बाल-पहिया के वर्षों को समझाकर परिस्थितिवशात् प्रयोगको आवश्यकता का महत्त्व प्रतिपादित किया है, वैसे ही प्रतिघात, प्रतिशोध के सम्बन्ध में जीवमात्र में होने वाली प्रतिशोध- भावना का विवेचन कर, उसके लिए धर्म का आधार बताकर, स्वायं के लिए नहीं तो परमार्थ के लिए हो प्रतिशोध किस प्रकार आवश्यक इस बात की विवेचना की है।
प्रस्तुत पुस्तक में संकलित अधिकतर से १९३७ के पूर्व तब ही लिखे गये हैं एवं मराठी साप्ताहिक श्रद्धानन्द तथा मासिक पत्रिका सह्याद्रि धादि में प्रकाशित भी हो चुके हैं जब अन्दमान की भयकर यातनाओं को सहने के पश्चात् महाराष्ट्र के रत्नागिरी नामक स्थान में वीरजी को स्थानबद्ध कर रखा गया था । १६३७ में कर्णावती ( अहमदाबाद) में सम्पन्न अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के १६ वें वार्षिक अधिवेशन की अध्यक्षता वीरजी ने की और धार्मिक, सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में विशेषरूप से तथा राजनीतिक क्षेत्र में साधारणरूप से कार्यरत हिन्दू महासभा को प्रकट एवं प्रभावी रूप से राजनीति के प्रागण में उपस्थित कर समय की प्रति तीव्र माँग को पूर्ण किया उसके लिए बना हुआ सैद्धान्तिक ग्राधार ‘हिन्दुत्व के पंच प्राण’ यही था । इस प्रकार वीरजी के प्रवेश से हिन्दू महासभा का मानो कायाकल्प ही हुआ क्योंकि, अपनी प्रखर प्रजा, प्रभावी प्रस्तुतीकरण, प्रबोधक प्रवदन आदि के माध्यम से अपने प्रगल्भ, प्रगमनशील हिन्दूराष्ट्रवाद का एवं उसके निर्माण हेतु प्रभावी हिन्दुसंगठन के प्रगहण का संख्याबल के प्रबलीकरण का… जातिभेद, प्रात्यन्तिक अहिंसा आदि के प्रवज्यन का धर्मभ्रष्ट एवं राष्ट्रभाषा की शुद्धि के प्रवर्तन का ; तथा प्रथर्षक के प्रतिहरण हेतु प्रतिघात के -प्रतिशोध के साग्र दर्शन का अमृत प्रसाद हिन्दू महासभा को वीरजी से सदा ही प्राप्त होता रहा ।
वीरजी में जहाँ एक ओर साहित्य सागर के निर्माण एवं विस्तार की कीमिया थी वहीं दूसरी ओर उस सागर को गागर में भरने की माया भी उन्हें सिद्ध थी इस वास्तविकता का अनुभव इस पुस्तक के पठन से पाठकों को अवश्य ही आयेगा ऐसा हमें विश्वास है इस विश्वास के साथ ही इस प्राशा को रखते हुए कि हिन्दूराष्ट्र के उक्त पंच प्राणों का पठन-मनन कर हिन्दूराष्ट्र को वर्धिष्णु एवं विजयिष्णु बनाने का संकल्प यह हिन्दू समाज करेगा, हम प्रस्तुत प्राक्कथन को पूर्ण करते हैं ।
– विक्रम सिंह एम० ए०
